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इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझ से | शाही शायरी
ishq ka rog bhala kaise palega mujhse

ग़ज़ल

इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझ से

प्रखर मालवीय कान्हा

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इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझ से
क़त्ल होता ही नहीं यार अना का मुझ से

गर्म पानी की नदी खुल गई सीने पे मिरे
कल गले लग के बड़ी देर वो रोया मुझ से

मैं बताता हूँ कुछ इक दिन से सभी को कम-तर
साहिबो उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझ से

इक तिरा ख़्वाब ही काफ़ी है मिरे उड़ने को
रश्क करता है मिरी जान परिंदा मुझ से

यक-ब-यक डूब गया अश्कों के दरिया में मैं
बाँध यादों का तिरी आज जो टूटा मुझ से

किसी पत्थर से दबी है मेरी हर इक धड़कन
सीख लो ज़ब्त का जो भी है सलीक़ा मुझ से

कोई दरवाज़ा नहीं खुलता मगर जान मिरी
बात करता है तिरे घर का दरीचा मुझ से

बुझ गया मैं तो ग़ज़ल पढ़ के वो जिस में तू था
पर हुआ बज़्म की रौनक़ में इज़ाफ़ा मुझ से