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इस से पहले कि हमें अहल-ए-जफ़ा रुस्वा करें | शाही शायरी
is se pahle ki hamein ahl-e-jafa ruswa karen

ग़ज़ल

इस से पहले कि हमें अहल-ए-जफ़ा रुस्वा करें

अब्दुल हमीद साक़ी

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इस से पहले कि हमें अहल-ए-जफ़ा रुस्वा करें
अपनी जाँ दे कर वफ़ा करने का हम वादा करें

आओ शबनम की तरह बन जाएँ तक़दीर-ए-चमन
क्यूँ कली बन कर खिलें और खिल के मुरझाया करें

गुलशन-ए-हस्ती में हम सावन के बादल की तरह
झूम कर उट्ठा करें और टूट कर बरसा करें

ख़ाका-ए-उल्फ़त में ख़ूँ भरना था हम ने भर दिया
लोग हम को बा-वफ़ा या बे-वफ़ा समझा करें

अपनी आँखों का समुंदर बह के तो ख़ामोश है
दिल के अंदर की सुलगती आग को हम क्या करें

एक ही चुल्लू है काफ़ी अहल-ए-ग़ैरत के लिए
डूब मरने के लिए क्यूँ ख़्वाहिश-ए-दरिया करें

खो के क्या पाया है हम ने पा के क्या कुछ खो दिया
आइने में वक़्त के साक़ी ये अंदाज़ा करें