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इस क़दर नाज़ है क्यूँ आप को यकताई का | शाही शायरी
is qadar naz hai kyun aapko yaktai ka

ग़ज़ल

इस क़दर नाज़ है क्यूँ आप को यकताई का

दाग़ देहलवी

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इस क़दर नाज़ है क्यूँ आप को यकताई का
दूसरा नाम है वो भी मिरी तन्हाई का

क्या छुपे राज़ इलाही दिल-ए-शैदाई का
अर्सा-ए-हश्र तो बाज़ार है रुस्वाई का

जान ले जाएगा आना शब-ए-तन्हाई का
कौन अब रोकने वाला है मिरी आई का

ख़ूगर-ए-रंज-ओ-बला हश्र के दिन क्या ख़ुश हों
कि वो माल आज हुआ है शब-ए-तन्हाई का

ज़िंदा है नाम शहादत का उसी के दम से
तेरे कुश्ते ने किया काम मसीहाई का

हर गली कूचे में पामाल उसे हो जाना
दिल है या नक़्श-ए-क़दम है किसी हरजाई का

इस अदब से तह-ए-शमशीर तड़पना ऐ दिल
कि गुमाँ तेरी तपिश पर हो शकेबाई का

फ़ित्ने भी क़ाएदे से उठते हैं जब उठते हैं
क्या सलीक़ा है तुम्हें अंजुमन-आराई का

वो ये कहते हैं मिरा सब्र पड़ेगा तुझ पर
अब मुझे रंज नहीं अपनी शकेबाई का

क्या ग़रज़ है मिरी तक़दीर को मुझ से पूछे
आबरू का है तलबगार कि रुस्वाई का

वाँ शब-ए-वादा मली पाँव में मेहंदी उस ने
याँ कलेजा कोई मलता है तमन्नाई का

रात भर शम्अ रही हिज्र में वो भी ख़ामोश
मुल्तजी था तिरी तस्वीर से गोयाई का

सर मिरा काट के दहलीज़ पर अपनी रख दो
शौक़ बाक़ी है अभी नासिया-फ़रसाई का

यूँ न मक़्बूल हुआ होगा किसी का सज्दा
बुत को अरमान रहा मेरी जबीं-साई का

हो गया परतव-ए-रुख़्सार से कुछ और ही रंग
मैं ने मुँह चूम लिया उस के तमाशाई का

थम गए जम गए आँखों में लहू के क़तरे
ख़ून ज़ाहिर है मिरे सब्र ओ शकेबाई का

बन गया दाग़-ए-जिगर मेहर-ए-क़यामत ऐ 'दाग़'
पर अभी रंग वही है शब-ए-तन्हाई का