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इस क़दर अफ़्सुर्दगी महसूस की | शाही शायरी
is qadar afsurdagi mahsus ki

ग़ज़ल

इस क़दर अफ़्सुर्दगी महसूस की

वसीम ताशिफ़

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इस क़दर अफ़्सुर्दगी महसूस की
मैं ने जब उस की कमी महसूस की

रात में सोया था दरिया के क़रीब
ख़्वाब में इक जल-परी महसूस की

उस के आने का यक़ीं बढ़ने लगा
फ़र्श-ए-दिल पर घास उगी महसूस की

आज फिर वो दर खुला था ध्यान में
और इक दीवार सी महसूस की

वक़्त का करने लगे हम एहतिराम
हर मोहब्बत आख़िरी महसूस की

मौत जिस दिन छू के गुज़री थी मुझे
मैं ने उस दिन ज़िंदगी महसूस की

आज माँ घर पे नहीं थी और फिर
हम ने कितनी बे-घरी महसूस की

वक़्त उस ने मुझ से पूछा था 'वसीम'
सब ने हाथों में घड़ी महसूस की