इस पार का हो के भी में उस पार गया हूँ
इक इस्म की बरकत से कई बार गया हूँ
ख़ैरात में दे आया हूँ जीती हुई बाज़ी
दुनिया ये समझती है कि मैं हार गया हूँ
थामे हुए इक रौशनी के हाथ को हर शब
पानी पे क़दम रख के मैं उस पार गया हूँ
दरवाज़े को औक़ात में लाने के लिए मैं
दीवार के अंदर से कई बार गया हूँ
क्या मेरे लिए एक भी किरदार नहीं था
क्यूँ अपनी कहानी से मैं बे-कार गया हूँ
मुश्किल है तुझे आग के दरिया से बचा लूँ
ऐ शहर-ए-पेशावर मैं तुझे हार गया हूँ
ख़्वाबों ने जो इक खेल बनाया था मिरे दोस्त
इस खेल में ताबीर से मैं हार गया हूँ

ग़ज़ल
इस पार का हो के भी में उस पार गया हूँ
इसहाक़ विरदग