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इस में क्या शक है कि आवारा हूँ मैं | शाही शायरी
isMein kya shak hai ki aawara hun main

ग़ज़ल

इस में क्या शक है कि आवारा हूँ मैं

अनवर शऊर

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इस में क्या शक है कि आवारा हूँ मैं
कूचे कूचे में फिरा करता हूँ मैं

मुझ से सरज़द होते रहते हैं गुनाह
आदमी हूँ क्यूँ कहूँ अच्छा हूँ मैं

साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आसमाँ को देख कर
गंदी गंदी गालियाँ बकता हूँ मैं

क़हवा-ख़ानों में बसर करता हूँ दिन
क़हबा-ख़ानों में सहर करता हूँ मैं

दिन गुज़रता है मिरा अहबाब में
रात को फ़ुट-पाथ पर सोता हूँ मैं

बीट कर जाती है चिड़िया टांट पर
अज़्मत-ए-आदम का आईना हूँ मैं

काँच सी गुड़ियों के नर्म आ'साब पर
सूरत-ए-संग-ए-हवस पड़ता हूँ मैं

नाज़ुकों के नाज़ उठाने के बजाए
नाज़ुकों से नाज़ उठवाता हूँ मैं

दूसरों को क्या पता अपना बताऊँ
अब तो ख़ुद अपने लिए अन्क़ा हूँ मैं

मुझ से पूछे हुर्मत-ए-काबा कोई
मस्जिदों में चोरियाँ करता हूँ मैं

मुझ से लिखवाए कोई हिजव-ए-शराब
मय-कदों में क़र्ज़ की पीता हूँ मैं

मैं छुपाता हूँ बरहना ख़्वाहिशें
वो समझती है कि शर्मीला हूँ मैं

किस क़दर बद-नामियाँ हैं मेरे साथ
क्या बताऊँ किस क़दर तन्हा हूँ मैं

ख़्वाब-आवर गोलियों से ऐ 'शुऊर'
ख़ुद-कुशी की कोशिशें करता हूँ मैं