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इस को न रात कह तू न इस को बता ग़लत | शाही शायरी
isko na raat kah tu na isko bata ghalat

ग़ज़ल

इस को न रात कह तू न इस को बता ग़लत

क़ाएम चाँदपुरी

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इस को न रात कह तू न इस को बता ग़लत
क्या जाने क्या सही है वाक़े में क्या ग़लत

देखा है मैं रुबाई-ए-हस्ती को ग़ौर से
पर लफ़्ज़ ना-दुरुस्त हैं हद-ए-मुद्दआ ग़लत

इज़हार-ए-इश्क़ डोल ही अपना नहीं है शोख़
जिन ने कहा ये तुझ से है महज़ इफ़्तिरा ग़लत

उस मारपेच कूचे में काकुल के दिल है ग़म
जिस में कि राह-ए-ख़िज़्र ने अक्सर किया ग़लत

'क़ाएम' न ऐश-ए-नक़्द को निस्या पे छोड़िए
क्या जाने बात क़िस्सा की है रास्त या ग़लत