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इस जहाँ से कोई भी सौदा न कर | शाही शायरी
is jahan se koi bhi sauda na kar

ग़ज़ल

इस जहाँ से कोई भी सौदा न कर

रमज़ान अली सहर

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इस जहाँ से कोई भी सौदा न कर
देख अपने आप को रुस्वा न कर

छीन कर यादों का सरमाया मिरी
इस भरी महफ़िल में यूँ तन्हा न कर

अजनबी हूँ अजनबी ही रहने दे
इस तरह मेरी तरफ़ देखा न कर

पत्थरों की चोट सह लेता हूँ मैं
फूल यूँ मेरी तरफ़ फेंका न कर

कर 'सहर' की आबरू का कुछ ख़याल
महफ़िल-ए-अग़्यार में चर्चा न कर