इस जहाँ से कोई भी सौदा न कर
देख अपने आप को रुस्वा न कर
छीन कर यादों का सरमाया मिरी
इस भरी महफ़िल में यूँ तन्हा न कर
अजनबी हूँ अजनबी ही रहने दे
इस तरह मेरी तरफ़ देखा न कर
पत्थरों की चोट सह लेता हूँ मैं
फूल यूँ मेरी तरफ़ फेंका न कर
कर 'सहर' की आबरू का कुछ ख़याल
महफ़िल-ए-अग़्यार में चर्चा न कर

ग़ज़ल
इस जहाँ से कोई भी सौदा न कर
रमज़ान अली सहर