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इस ग़म की धूप में मुझे पुरवाइयाँ न दो | शाही शायरी
is gham ki dhup mein mujhe purwaiyan na do

ग़ज़ल

इस ग़म की धूप में मुझे पुरवाइयाँ न दो

ललन चौधरी

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इस ग़म की धूप में मुझे पुरवाइयाँ न दो
जलने दो अपनी ज़ुल्फ़ की परछाइयाँ न दो

लर्ज़ां हैं दो-जहाँ क़यामत बपा न हो
अपने शुऊर-ए-हुस्न को अंगड़ाइयाँ न दो

आ जाओ कब से ख़ल्क़ तरसती है दीद को
पर्दे में अपने आप को तन्हाइयाँ न दो

हो जाए जिस में ग़र्क़ मिरी कश्ती-ए-उमीद
वो बहर-ए-इज़्तिराब की गहराइयाँ न दो

होती हैं कारगर कहीं झूटी तसल्लियाँ
ऐ चारासाज़ो दिल को शकेबाइयाँ न दो

रोज़-ए-अज़ल से है दिल-ए-वहशी जुनूँ-पसंद
मजनूँ को ज़ौक़-ए-अंजुमन-आराईयाँ न दो

'आफ़त' उठा लूँ हाथ न उस ज़ीस्त से कहीं
मेरे जुनून-ए-इश्क़ को रुस्वाइयाँ न दो