इस ग़म की धूप में मुझे पुरवाइयाँ न दो
जलने दो अपनी ज़ुल्फ़ की परछाइयाँ न दो
लर्ज़ां हैं दो-जहाँ क़यामत बपा न हो
अपने शुऊर-ए-हुस्न को अंगड़ाइयाँ न दो
आ जाओ कब से ख़ल्क़ तरसती है दीद को
पर्दे में अपने आप को तन्हाइयाँ न दो
हो जाए जिस में ग़र्क़ मिरी कश्ती-ए-उमीद
वो बहर-ए-इज़्तिराब की गहराइयाँ न दो
होती हैं कारगर कहीं झूटी तसल्लियाँ
ऐ चारासाज़ो दिल को शकेबाइयाँ न दो
रोज़-ए-अज़ल से है दिल-ए-वहशी जुनूँ-पसंद
मजनूँ को ज़ौक़-ए-अंजुमन-आराईयाँ न दो
'आफ़त' उठा लूँ हाथ न उस ज़ीस्त से कहीं
मेरे जुनून-ए-इश्क़ को रुस्वाइयाँ न दो

ग़ज़ल
इस ग़म की धूप में मुझे पुरवाइयाँ न दो
ललन चौधरी