EN اردو
इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले | शाही शायरी
is ehtimam se parwane peshtar na jale

ग़ज़ल

इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले

सादिक़ नसीम

;

इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
तवाफ़-ए-शम'अ करें और किसी के पर न जले

हवा ही ऐसी चली है हर एक सोचता है
तमाम शहर जले एक मेरा घर न जले

हमें ये दुख कि नुमूद-ए-सहर न देख सके
सहर को हम से शिकायत कि ता-सहर न जले

चराग़-ए-शहर नहीं हम चराग़-ए-सहरा हैं
किसे ख़बर कि जले और किसे ख़बर न जले

तिरी दलील बजा पर ये कैसे माना जाए
शजर को आग लगे और कोई समर न जले

शुऊर-ए-क़ुर्ब की ये भी है इक अजब मंज़िल
हम उस को ग़ैर की महफ़िल में देख कर न जले

ये शाम मर्ग-ए-तमन्ना की शाम है 'सादिक़'
कोई चराग़ किसी ताक़-ए-चश्म पर न जले