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इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है | शाही शायरी
is dar ki si rahat bhi do aalam mein kahin hai

ग़ज़ल

इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है

राज़ यज़दानी

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इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है
जीना भी यहीं है मुझे मरना भी यहीं है

अब वाक़िफ़-ए-मफ़्हूम-ए-वफ़ा क़ल्ब-ए-हज़ीं है
अब आप की बेदाद भी बेदाद नहीं है

तुम और मिरी ख़ाना-ख़राबी पे तबस्सुम
उम्मीद से बढ़ कर अभी क़द्र-ए-दिल-ओ-दीं है

या तेरे सिवा हुस्न ही दुनिया में नहीं था
या देख रहा हूँ कि जो मंज़र है हसीं है

ये ज़ीस्त है या मौत समझ में नहीं आता
अब दर्द है और दर्द की तकलीफ़ नहीं है