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इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा | शाही शायरी
is aankh mein KHwab-e-naz ho ja

ग़ज़ल

इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा

सलीम अहमद

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इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा
ऐ हिज्र की शब दराज़ हो जा

असरार तमाम खुल रहे हैं
तू अपने लिए भी राज़ हो जा

ऐ नग़्मा-नवाज़ आख़िर-ए-शब
आहंग-ए-शिकस्त-ए-साज़ हो जा

दीवार की तरह बंद क्यूँ है
दस्तक कोई दे तो बाज़ हो जा

अब दिन तो ग़ुरूब हो रहा है
साए की तरह दराज़ हो जा

याँ फ़त्ह सबब है सर-कशी का
तू हार के सरफ़राज़ हो जा

तू शीशा बने कि संग कुछ बन
अंदर से मगर गुदाज़ हो जा

उस आँख से सीख राज़-ए-इस्मत
खुल खेल के पाक-बाज़ हो जा