EN اردو
इर्तिबात-ए-बाहमी शैख़-ओ-बरहमन में नहीं | शाही शायरी
irtibaat-e-bahami shaiKH-o-barahman mein nahin

ग़ज़ल

इर्तिबात-ए-बाहमी शैख़-ओ-बरहमन में नहीं

शोला करारवी

;

इर्तिबात-ए-बाहमी शैख़-ओ-बरहमन में नहीं
जो मज़ा है मिल के रहने में वो अन-बन में नहीं

नाला-संजी-ए-अनादिल से ये चलता है पता
नाम को बू-ए-वफ़ा अर्बाब-ए-गुलशन में नहीं

दैर-ओ-का'बा की परस्तिश फिर भला किस काम की
जब ख़ुलूस-ए-बंदगी शैख़-ओ-बरहमन में नहीं

फिर खटकते हैं निगाह-ए-बाग़बाँ में किस लिए
ख़ैर से अब चार तिनके भी नशेमन में नहीं

उम्र-भर मुझ को जला के शम-ओ-गुल क्यूँ लाए अब
दाग़-ए-दिल की रौशनी क्या मेरे मदफ़न में नहीं

फिर तड़प कर बार बार आती है बिजली किस लिए
एक तिनका भी तो अब मेरे नशेमन में नहीं

अपने दिल की आप ने पहनाइयाँ देखीं कहाँ
ऐसी वुसअ'त तो क़यामत के भी दामन में नहीं

हाथ सीने पर न रक्खो हो चुका क़िस्सा तमाम
अब कोई आवाज़ मेरे दिल की धड़कन में नहीं

हैं सबक़-आमोज़ औराक़-ए-किताब-ए-गुल मगर
जुज़ फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू कुछ उन के दामन में नहीं

देख कर वो ज़ख़्म-ए-दिल की करती क्या बख़िया-गरी
नूर का डोरा सवाद-ए-चश्म-ए-सोज़न में नहीं

इस क़दर पीसा ज़माने ने मुझे 'शो'ला' कि अब
एक दाना भी मिरी क़िस्मत का ख़िर्मन में नहीं