'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें
मिल बैठ के लोगों में आ अपने ख़ला काटें
जो करना है अब कर लें हम तुम से न कहते थे
अब संग-सितम चाहें होने की सज़ा काटें
अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना
रोएँ भी तो ला-हासिल बोएँ भी तो क्या काटें
पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
दम जितना मयस्सर है ये ठहरी हवा काटें
इस मरहला-ए-शब में अब एक ही सूरत है
या दश्त-ए-तलब पाटें या गर्दिश-ए-पा काटें
ग़ज़ल
'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें
इक़बाल कौसर