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'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें | शाही शायरी
iqbaal yunhi kab tak hum qaid-e-ana kaTen

ग़ज़ल

'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें

इक़बाल कौसर

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'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें
मिल बैठ के लोगों में आ अपने ख़ला काटें

जो करना है अब कर लें हम तुम से न कहते थे
अब संग-सितम चाहें होने की सज़ा काटें

अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना
रोएँ भी तो ला-हासिल बोएँ भी तो क्या काटें

पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ
दम जितना मयस्सर है ये ठहरी हवा काटें

इस मरहला-ए-शब में अब एक ही सूरत है
या दश्त-ए-तलब पाटें या गर्दिश-ए-पा काटें