इंतिशार-ओ-ख़ौफ़ हर इक सर में है
आफ़ियत से कौन अपने घर में है
ज़िंदगी पर सब हक़ीक़त खुल चुकी
तू अभी तक ख़्वाब के पैकर में है
मुतमइन इंसाँ कहीं पर भी नहीं
एक सी हालत ज़माने भर में है
रात की चट्टान से सुब्हें तराश
ख़्वाब की ताबीर इसी पत्थर में है
झूट की बन आई है चारों तरफ़
सच अगर है भी तो पस-मंज़र में है
बर्फ़ एहसासात की पिघला सके
वो शरर माज़ी की ख़ाकिस्तर में है
टूट जाने तक उड़ेंगे हम 'नियाज़'
हौसला इतना तो बाल-ओ-पर में है
ग़ज़ल
इंतिशार-ओ-ख़ौफ़ हर इक सर में है
अब्दुल मतीन नियाज़