EN اردو
इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है | शाही शायरी
inikas-e-tishnagi sahra bhi hai dariya bhi hai

ग़ज़ल

इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है

अहमद शहरयार

;

इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है
तर-ब-तर ये रौशनी सहरा भी है दरिया भी है

आग पर मेरा तसर्रुफ़ आब पर मेरी गिरफ़्त
मेरी मुट्ठी में अभी सहरा भी है दरिया भी है

झील में ठहरा हुआ है उस का अक्स-ए-आतिशीं
आइने में इस घड़ी सहरा भी है दरिया भी है

जल उठें यादों की क़ंदीलें, सदाएँ डूब जाएँ
दर-हक़ीक़त ख़ामुशी सहरा भी है दरिया भी है

ज़िंदा लौट आया हूँ जंगल से तो क्या जा-ए-मलाल
मेरे रस्ते में अभी सहरा भी है दरिया भी है

कोई ख़ेमे राख कर दे कोई बाज़ू छीन ले
एक सी ग़ारत-गरी सहरा भी है दरिया भी है

रेत पर रख्खूँ तुझे या बहते पानी में बहाऊँ
देख ऐ तिश्ना-लबी सहरा भी है दरिया भी है

तू बगूला है कि है गिर्दाब ऐ रक़्स-दवाम
फ़ैसला कर ले अभी सहरा भी है दरिया भी है

दश्त भी उस की रिवायत में है मौज-ए-आब भी
मेरी आँखों की नमी सहरा भी है दरिया भी है

तू सँभालेगा भला कैसे ये सारी सल्तनत
'शहरयार'-शायरी सहरा भी है दरिया भी है