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इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं | शाही शायरी
in zalimon ko jaur siwa kaam hi nahin

ग़ज़ल

इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं

ताबाँ अब्दुल हई

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इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं
गोया कि उन के ज़ुल्म का अंजाम ही नहीं

ग़म वस्ल में है हिज्र का हिज्राँ में वस्ल का
हरगिज़ किसी तरह मुझे आराम ही नहीं

क्या क्या ख़राबियाँ मैं तिरे वास्ते सहीं
तिस पर भी चाहने का मिरे नाम ही नहीं

अब हम दिनों को अपने न रोएँ तो क्या करें
करने थे जिन में ऐश वे अय्याम ही नहीं

वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
ऐसे गए कि उन का कहीं नाम ही नहीं

तुम जो हर इक के दिल को सताते हो क्या मियाँ
आग़ाज़ का जफ़ा के कुछ अंजाम ही नहीं

'ताबाँ' बता मैं इज्ज़ कहाँ तक किया करूँ
जुज़ तर्क-ए-मेहर-यार का पैग़ाम ही नहीं