इन के रुख़ पर हिजाब रहता है
जैसे मह पर सहाब रहता है
वस्ल का जब सवाल हो उन से
बस ''नहीं'' में जवाब रहता है
पास रह कर भी दरमियाँ अपने
फ़ासला बे-हिसाब रहता है
हुस्न वालों से जो वफ़ा चाहे
उस का ख़ाना ख़राब रहता है
हम-सफ़र सोहनी सी हो कोई
मेरे ख़ूँ में चनाब रहता है
मिस्ल-ए-ताएर हवा में उड़ता हूँ
मेरी आँखों में ख़्वाब रहता है
रेग-ए-सहरा उन्हें निगलती है
जिन की रह में सराब रहता है
माँ की जिस को दुआएँ मिल जाएँ
उम्र भर कामयाब रहता है
जाने किस ख़ाक से बना हूँ मैं
रूह में इज़्तिराब रहता है
उलझे रिश्तों की तल्ख़ उलझन में
उलझा उलझा 'सहाब' रहता है

ग़ज़ल
इन के रुख़ पर हिजाब रहता है
लईक़ अकबर सहाब