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इन आँखों में बसा कोई ज़ोहरा-जबीं है अब | शाही शायरी
in aankhon mein basa koi zohra-jabin hai ab

ग़ज़ल

इन आँखों में बसा कोई ज़ोहरा-जबीं है अब

रऊफ़ यासीन जलाली

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इन आँखों में बसा कोई ज़ोहरा-जबीं है अब
मुज़्तर कुछ ऐसा दिल है ठहरता नहीं है अब

बचपन ही से थे रश्क-ए-हसीनान-ए-दिल-फ़रेब
अहद-ए-शबाब उन का ग़ज़ब दिल-नशीं है अब

दिलदार मेरे हाँ से बहुत मुश्तइ'ल गया
ऐ दिल समझ ले ख़ैर अदू की नहीं है अब

आशिक़ तुम्हारा कहते हैं देखा नहीं कभी
या'नी तुम्हारी याद में ख़लवत-गुज़ीं है अब

काफ़ी है तेरे हाथ का छल्ला यही मुझे
कुछ ख़ातिम-ए-सुलैमाँ की हसरत नहीं है अब

अफ़्साना मेरा सुन के पशेमाँ है चश्म-ए-यार
किस दर्जा ख़शमगीं थी मगर शर्मगीं है अब

क्या जाने यारो किस के तसव्वुर में खो गया
देखा 'जलाली' हम ने सरापा हज़ीं है अब