इक यही वस्फ़ है इस में जो अमर लगता है
वो कड़ी धूप में बरगद का शजर लगता है
यूँ तो चाहत में निहाँ जून की हिद्दत है मगर
सर्द लहजे में दिसम्बर का असर लगता है
जब से जाना कि वो हम-शहर है मेरा तब से
शहर-ए-लाहौर भी जादू का नगर लगता है
जाने कब गर्दिश-ए-अय्याम बदल डाले तुझे
जीत कर तुझ को मुझे हार से डर लगता है
चाहे कितनी ही सजावट से मुज़य्यन हो मगर
माँ नज़र आए तो घर अस्ल में घर लगता है
इस क़दर उस की निगाहों में तक़द्दुस है निहाँ
सर झुकाती हूँ तो पीपल का शजर लगता है

ग़ज़ल
इक यही वस्फ़ है इस में जो अमर लगता है
प्रिया ताबीता