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इक उम्र हुई और मैं अपने से जुदा हूँ | शाही शायरी
ek umr hui aur main apne se juda hun

ग़ज़ल

इक उम्र हुई और मैं अपने से जुदा हूँ

ताबिश सिद्दीक़ी

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इक उम्र हुई और मैं अपने से जुदा हूँ
ख़ुशबू की तरह ख़ुद को सदा ढूँड रहा हूँ

हर लम्हा तिरी याद के साए में कटा है
थक थक के हर इक गाम पे जब बैठ गया हूँ

तू लाख जुदा मुझ से रहे पास है मेरे
तू गुम्बद-ए-हस्ती है तो मैं इस की सदा हूँ

हर साँस तिरी बाद-ए-सहर का कोई झोंका
मैं फूल नहीं और तिरे रस्ते में खिला हूँ

तस्वीर की हर नोक पलक है मिरे ख़ूँ से
इक रंग हूँ मैं और तिरे ख़्वाबों में घुला हूँ

हर साँस चली आती है जाँ हाथ में ले कर
मैं सोचता हूँ मैं भी कोई कोह-ए-निदा हूँ

ज़िंदा हूँ कि मरना मिरी क़िस्मत में लिखा है
हर रोज़ गुनाहों की सज़ा काट रहा हूँ

इक आलम-ए-तन्हाई है कुछ देखा हुआ सा
शायद कि मैं अपने ही बयाबाँ में खड़ा हूँ

ये हाल मिरा मेरी मोहब्बत का सिला है
जो अपने ही दामन से बुझा हो वो दिया हूँ

तू चाँद है मैं चाँद का अंजाम-ए-सफ़र हूँ
आँखों में तिरी दूर कहीं डूब गया हूँ

रुस्वा हूँ मगर ख़ुद से छुपा फिरता हूँ 'ताबिश'
अपने से निहाँ सारे ज़माने पे खुला हूँ