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इक उम्र भटकते रहे घर ही नहीं आया | शाही शायरी
ek umr bhaTakte rahe ghar hi nahin aaya

ग़ज़ल

इक उम्र भटकते रहे घर ही नहीं आया

अख़तर शाहजहाँपुरी

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इक उम्र भटकते रहे घर ही नहीं आया
साहिल की तमन्ना थी नज़र ही नहीं आया

रौशन हैं जहाँ शम-ए-मोहब्बत की क़तारें
वो कुंज-ए-कम-आसार नज़र ही नहीं आया

मैं झूट को सच्चाई के पैकर में सजाता
क्या कीजिए मुझ को ये हुनर ही नहीं आया

वो गुम्बद-ए-बे-दर था कि दीवार-ए-अना थी
मंज़र कोई बाहर का नज़र ही नहीं आया

इक ऐसा सफ़र भी मुझे दरपेश था लोगो
कुछ काम जहाँ ज़ाद-ए-सफ़र ही नहीं आया

बैठे रहे पलकों को बिछाए सर-ए-राहे
वो जान-ए-जहाँ-गश्त इधर ही नहीं आया

इक पल को जहाँ बैठा हूँ थक कर कभी 'अख़्तर'
रस्ते में कोई ऐसा शजर ही नहीं आया