इक शोख़ के होंटों से ये जाम तराशे हैं
ये जाम तराशे हैं इनआ'म तराशे हैं
आइने पे क्यूँ इतने बरहम नज़र आते हो
जो शक्लें मिलें उस से वो नाम तराशे हैं
मस्जिद हो कर मंदिर हो कुछ फ़र्क़ नहीं लेकिन
ख़ुद हम ने ही नफ़रत के असनाम तराशे हैं
तक़्सीम हूँ मजबूरन मैं कितने ही ख़ानों में
दुनिया ने मगर क्या क्या इल्ज़ाम तराशे हैं
लिक्खेगा गिला क्या है करने से ही होता है
लोगों ने पहाड़ों में गुलफ़ाम तराशे हैं
फ़र्ज़ानों की बस्ती में क्या काम 'नियाज़ी' का
दीवानों सा लहजा है इबहाम तराशे हैं

ग़ज़ल
इक शोख़ के होंटों से ये जाम तराशे हैं
क़ासिम नियाज़ी