EN اردو
इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को | शाही शायरी
ek saen saen ghere hai girte makan ko

ग़ज़ल

इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को

शीन काफ़ निज़ाम

;

इक साएँ साएँ घेरे है गिरते मकान को
और आँखें ताकती हैं चमकती चटान को

चढ़ते ही मेरे हो गई दीवार से अलग
हसरत से देखता हूँ उसी नर्दबाँ को

अंदेशे दूर दूर के नज़दीक का सफ़र
कश्ती को देखता हूँ कभी बादबान को

ज़िंदान-ए-रोज़-ओ-शब में है हम सब को उम्र-क़ैद
कोई बचाए आ के मिरे ख़ानदान को

यादों के शोर-ओ-गुल में खड़ी घर की ख़ामोशी
आवाज़ दे रही है किसी मेहरबान को

बरसों से घूमता है इसी तरह रात दिन
लेकिन ज़मीन मिलती नहीं आसमान को