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इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ | शाही शायरी
ek raat mein sau bar jala aur bujha hun

ग़ज़ल

इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ

नज़ीर बनारसी

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इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़्लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

क़िंदील समझ कर कोई सर काट न ले आए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ

सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शो-केस में चुप-चाप खड़ा हूँ

वो आइना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझ से
मैं ख़ाक हूँ मैं आग हूँ पानी हूँ हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इस लिए क़तरा हूँ कि दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराज-ए-मोहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ

दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अँगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ