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इक पीली चमकीली चिड़िया काली आँख नशीली सी | शाही शायरी
ek pili chamkili chiDiya kali aankh nashili si

ग़ज़ल

इक पीली चमकीली चिड़िया काली आँख नशीली सी

ज़ेब ग़ौरी

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इक पीली चमकीली चिड़िया काली आँख नशीली सी
बैठी है दरिया के किनारे मेरी तरह अकेली सी

जब मैं नशेब-ए-रंग-ओ-बू में उतरा उस की याद के साथ
ओस में भीगी धूप लगी है नर्म हरी लचकीली सी

किस को ख़बर मैं किस रस्ते की धूल बनूँ या फूल बनूँ
क्या जाने क्या रंग दिखाए उस की आँख पहेली सी

तेज़ हवा की धार से कट कर क्या जाने कब गिर जाए
लहराती है शाख़-ए-तमन्ना कच्ची बेल चमेली सी

कम रौशन इक ख़्वाब आईना इक पीला मुरझाया फूल
पस-मंज़र के सन्नाटे में एक नदी पथरीली सी