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इक फूल मेरे पास था इक शम्अ' मेरे साथ थी | शाही शायरी
ek phul mere pas tha ek shama mere sath thi

ग़ज़ल

इक फूल मेरे पास था इक शम्अ' मेरे साथ थी

अहमद मुश्ताक़

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इक फूल मेरे पास था इक शम्अ' मेरे साथ थी
बाहर ख़िज़ाँ का ज़ोर था अंदर अँधेरी रात थी

ऐसे परेशाँ तो न थे टूटे हुए सन्नाहटे
जब इश्क़ की तेरे मिरे ग़म पर बसर-औक़ात थी

कुछ तुम कहो तुम ने कहाँ कैसे गुज़ारे रोज़-ओ-शब
अपने न मिलने का सबब तो गर्दिश-ए-हालात थी

इक ख़ामुशी थी तर-ब-तर दीवार-ए-मिज़्गाँ से उधर
पहुँचा हुआ पैग़ाम था बरसी हुई बरसात थी

सब फूल दरवाज़ों में थे सब रंग आवाज़ों में थे
इक शहर देखा था कभी उस शहर की क्या बात थी

ये हैं नए लोगों के घर सच है अब उन को क्या ख़बर
दिल भी किसी का नाम था ग़म भी किसी की ज़ात थी