इक नया लहजा बनाया हर्फ़-ए-आलमगीर का
फ़िक्र को गरमा गया शो'ला मिरी तक़रीर का
वलवला कुछ कम न था बेताबी-ए-तदबीर का
किस तरह हम मान लेते फ़ैसला तक़दीर का
ज़ेहन पर ग़ालिब रहा है ख़ुद-सताई का जुनूँ
हम कि मुँह देखा किए ख़ुद अपनी ही तस्वीर का
ख़ुद-शनासी से मिली है ज़िंदगी की आरज़ू
ज़िंदगी ख़ुद बन गई हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
झूट बोले दूसरों की आबरू के वास्ते
हम ने ज़िम्मा ले लिया है ग़ैर की तौक़ीर का
मैं ने इस अंदाज़ से गुलशन में की 'नूरी' फ़ुग़ाँ
शोर बरपा कर दिया गुलचीं ने दार-ओ-गीर का

ग़ज़ल
इक नया लहजा बनाया हर्फ़-ए-आलमगीर का
कर्रार नूरी