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इक नश्तर-ए-निगाह है इस से ज़ियादा क्या | शाही शायरी
ek nashtar-e-nigah hai is se ziyaada kya

ग़ज़ल

इक नश्तर-ए-निगाह है इस से ज़ियादा क्या

मोहम्मद अाज़म

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इक नश्तर-ए-निगाह है इस से ज़ियादा क्या
दम भर की आह आह है इस से ज़ियादा क्या

गर्दन से तौक़-ए-ख़ौफ़-ओ-तलब को निकाली देख
फिर कोई बादशाह है इस से ज़ियादा क्या

ताक़त अगर है पाँव में सहरा का ख़ौफ़ क्यूँ
बस इक कुशादा राह है इस से ज़ियादा क्या

वो तो हवा थी बंद न मुट्ठी में हो सकी
अब रंज ख़्वाह-मख़ाह है इस से ज़ियादा क्या

बालों को अपने छोड़ मिरी शाम-ए-ग़म को देख
फिर देख कुछ सियाह है इस से ज़ियादा क्या

हर-चंद आज भी है वही कसरत-ए-उमीद
हारी हुई सिपाह है इस से ज़ियादा क्या

इक कंकरी उछाल के तोड़ो तिलिस्म-ए-ताब
पानी में अक्स-ए-माह है इस से ज़ियादा क्या

हैं कामयाब जिन का यहाँ जी नहीं लगा
दुनिया की दरस-गाह है इस से ज़ियादा क्या

घटता ही जाएगा ये लताफ़त के साथ साथ
ये जिस्म ज़ाद-ए-राह है इस से ज़ियादा क्या

ख़ून-ए-जिगर से शेर लिखो और मा-हसल
दम भर की वाह-वाह है इस से ज़ियादा क्या