इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है
जो कुछ है ये कुछ नहीं है तू है
हर फूल के साथ एक काँटा
हर दोस्त के साथ इक अदू है
दिल है तो हज़ार तुझ से अच्छे
ऐसा ही तो इक बड़ा वो तू है
दुश्मन के जिगर का ख़ार मैं हूँ
और उस के गले का हार तू है
दामन जो है पर्दा-दार-ए-वहशत
इस में भी कई जगह रफ़ू है
मैं आप ही आप रो रहा हूँ
कुछ आप ही आप गुफ़्तुगू है
महशर में किसी का हाए कहना
अब आप के हाथ आबरू है
ओ ग़ैर को आँख देने वाले
'मुज़्तर' भी निगाह-ए-रू-ब-रू है
ग़ज़ल
इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है
मुज़्तर ख़ैराबादी