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इक न आने वाले का इंतिज़ार करते हैं | शाही शायरी
ek na aane wale ka intizar karte hain

ग़ज़ल

इक न आने वाले का इंतिज़ार करते हैं

शाहिद इश्क़ी

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इक न आने वाले का इंतिज़ार करते हैं
शम-ए-रह-गुज़र हैं हम रोज़ बुझते-जलते हैं

मेरे कुछ न कहने को हर्फ़-ए-आरज़ू समझो
ख़ामुशी में भी मा'नी कुछ न कुछ निकलते हैं

एक नश्शा रहता है तुझ से मिल के पहरों तक
नश्शा जब नहीं होता और हम बहकते हैं

राह-ए-दर्द में कोई हम-सफ़र नहीं होता
अपनी आग में ख़ुद ही शम्अ' साँ पिघलते हैं

देखना है कौन 'इश्क़ी' साथ दे सर-ए-मंज़िल
इब्तिदा में तो सब ही साथ साथ चलते हैं