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इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है | शाही शायरी
ek KHwab tha aankhon mein jo ab ashk-e-sahar hai

ग़ज़ल

इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है

ज़िया जालंधरी

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इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है
इक ताइर-ए-वहशी था सो वो ख़ून में तर है

वो दूर नहीं है ये रसाई नहीं होती
हर लम्हा कोई ताज़ा ख़म-ए-राहगुज़र है

दिल आज कुछ इस तरह धड़कता है कि जैसे
अब शौक़-ए-मुलाक़ात पे हावी कोई डर है

कुछ हौसला-ए-ज़ब्त है कुछ वज़्अ है अपनी
शो'ला न बना लब पे जो सीने में शरर है

सुनते तो रहे सब की ये हसरत रही दिल में
हम पर भी खुले ज़ीस्त का मफ़्हूम अगर है

ताराज बहाराँ है कि इक जश्न-ए-जुनूँ है
रक़्साँ हैं बगूले कि हवा ख़ाक-बसर है

आशुफ़्ता किया इतना 'ज़िया' दर-ब-दरी ने
बावर नहीं आता कि हमारा कोई घर है