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इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म | शाही शायरी
ek KHushi ke liye hain kitne gham

ग़ज़ल

इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म

यज़दानी जालंधरी

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इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म
मुब्तला-ए-सद-आरज़ू हैं हम

दिल भी लौह-ओ-क़लम का हम-सर है
दास्तानें हैं कितनी दिल पे रक़म

अज़्मत-ए-रफ़्तगाँ है नज़रों में
अपने माज़ी को ढूँडते हैं हम

पारा पारा है ख़ुद जुनूँ लेकिन
फ़िक्र-ए-इंसाँ इसी से है मोहकम

भीगी भीगी है हर किरन उन की
है सितारों की आँख भी पुर-नम

यूँ न होती सहर की रुस्वाई
काश खुलता न रौशनी का भरम

हम हैं और एहतिराम-ए-हुस्न-ए-वफ़ा
वो हैं और एहतिमाम-ए-मश्क़-ए-सितम

कमतर उस को न कहिए 'यज़्दानी'
आदमी ख़ुद है जान-ए-दो-आलम