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इक हवा आई है दीवार में दर करने को | शाही शायरी
ek hawa aai hai diwar mein dar karne ko

ग़ज़ल

इक हवा आई है दीवार में दर करने को

फ़रहत एहसास

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इक हवा आई है दीवार में दर करने को
कोई दरवाज़ा खुला है मुझे घर करने को

दूर सहरा में कोई ज़ुल्फ़ सी लहराई है
कोई बादल सा उड़ा है मुझे तर करने को

नज़र आई है किसी चाँद की परछाईं सी
शब-ए-हस्ती में मिरे साथ सफ़र करने को

आ मुझे छू के हरा रंग बिछा दे मुझ पर
मैं भी इक शाख़ सी रखता हूँ शजर करने को

ऐ सदफ़ सुन तुझे फिर याद दिला देता हूँ
मैं ने इक चीज़ तुझे दी थी गुहर करने को