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इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ | शाही शायरी
ek harf-e-shauq lab pe hai aur iltija ke sath

ग़ज़ल

इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ

सरशार सिद्दीक़ी

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इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ
मैं इक नए सफ़र पे हूँ अपनी अना के साथ

मैं ने इबादतों को मोहब्बत बना दिया
आँखें बुतों के साथ रहीं दिल ख़ुदा के साथ

किस क़हत-ए-ए'तिबार से गुज़रे हैं अहल-ए-दिल
रंग-ए-वफ़ा भी उड़ गया रंग-ए-हिना के साथ

मेरा वजूद हर्फ़-ए-तक़ाज़ा बना हुआ
मोहर-ए-क़ुबूल उस के लबों पर हया के साथ

गुल-चेहरा लोगों से था मिरा भी मुआमला
आवारा मैं भी हो गया मौज-ए-सबा के साथ

ना-मुस्तजाब इतनी दुआएँ हुईं कि फिर
मेरा यक़ीं भी उठ गया रस्म-ए-दुआ के साथ

घर याद आ रहा था चले आए हैं मगर
हम अपने सर पे लाए हैं सहरा उठा के साथ

आबादियों की ख़ैर मनाने का वक़्त है
जंगल की आग फैल रही है हवा के साथ