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इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला | शाही शायरी
ek gul-e-tar bhi sharar se nikla

ग़ज़ल

इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला
बस-कि हर काम हुनर से निकला

मैं तिरे ब'अद फिर ऐ गुम-शुदगी
ख़ेमा-ए-गर्द-ए-सफ़र से निकला

ग़म निकलता न कभी सीने से
इक मोहब्बत की नज़र से निकला

ऐ सफ़-ए-अब्र-ए-रवाँ तेरे ब'अद
इक घना साया शजर से निकला

रास्ते में कोई दीवार भी थी
वो इसी डर से न घर से निकला

ज़िक्र फिर अपना वहाँ मुद्दत ब'अद
किसी उनवान-ए-दिगर से निकला

हम कि थे नश्शा-ए-महरूमी में
ये नया दर्द किधर से निकला

एक ठोकर पे सफ़र ख़त्म हुआ
एक सौदा था कि सर से निकला

एक इक क़िस्सा-ए-बे-मअ'नी का
सिलसिला तेरी नज़र से निकला

लम्हे आदाब-ए-तसलसुल से छुटे
मैं कि इमकान-ए-सहर से निकला

सर-ए-मंज़िल ही खुला ऐ 'बानी'
कौन किस राहगुज़र से निकला