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इक फ़क़त साहिल तलक आता हूँ मैं | शाही शायरी
ek faqat sahil talak aata hun main

ग़ज़ल

इक फ़क़त साहिल तलक आता हूँ मैं

प्रीतपाल सिंह बेताब

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इक फ़क़त साहिल तलक आता हूँ मैं
रौ में जाने कैसे बह जाता हूँ मैं

मंज़िलों की जुस्तुजू में बार-हा
मंज़िलों से आगे बढ़ जाता हूँ मैं

भागता हूँ रात जिस जंगल से दूर
सुब्ह उसी को सामने पाता हूँ मैं

किस उफ़ुक़ में दफ़्न हो जाता है दिन
हर शब इस उलझन को सुलझाता हूँ मैं

मर गया जो शख़्स मुझ में उस का रोज़
पत्थरों पर नाम खुदवाता हूँ मैं

क़ुफ़्ल-ए-अबजद हूँ बस इक तरतीब से
खोलने वाला हो खुल जाता हूँ मैं

बार बार इस शहर को 'बेताब' क्यूँ
बा-दि-ए-लना-ख़्वास्ता जाता हूँ मैं