इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
तिरी ख़्वाहिश अभी है तो सही कम हो गई है
नज़र धुँदला रही है या मनाज़िर बुझ रहे हैं
अँधेरा बढ़ गया या रौशनी कम हो गई है
तिरा होना तो है बस एक सूरत का इज़ाफ़ा
तिरे होने से क्या तेरी कमी कम हो गई है
ख़मोशी को जुनूँ से दस्त-बरादारी न समझो
तजस्सुस बढ़ गया है सर-कशी कम हो गई है
तिरा रब्त अपने गिर्द-ओ-पेश से इतना ज़ियादा
तो क्या ख़्वाबों से अब वाबस्तगी कम हो गई है
सर-ए-ताक़-ए-तमन्ना बुझ गई है शम-ए-उमीद
उदासी बढ़ गई है बे-दिली कम हो गई है
सभी ज़िंदा हैं और सब की तरह मैं भी हूँ ज़िंदा
मगर जैसे कहीं से ज़िंदगी कम हो गई है
ग़ज़ल
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
इरफ़ान सत्तार