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इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं | शाही शायरी
ibtida hun ki intiha hun main

ग़ज़ल

इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं

रिफ़अत सुलतान

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इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं
उम्र भर सोचता रहा हूँ मैं

लफ़्ज़-ओ-मा'नी से मावरा हूँ मैं
एक ख़ामोश इल्तिजा हूँ मैं

दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
आदतन मुस्कुरा रहा हूँ मैं

ना-तवाँ हो के अद्ल चाहता हूँ
वाक़ई क़ाबिल-ए-सज़ा हूँ मैं

देख कर रंग बज़्म-ए-आलम का
नक़्श-ए-दीवार बन गया हूँ मैं

सुबह के इंतिज़ार में 'रिफ़अत'
रात भर सोचता रहा हूँ मैं