इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं
उम्र भर सोचता रहा हूँ मैं
लफ़्ज़-ओ-मा'नी से मावरा हूँ मैं
एक ख़ामोश इल्तिजा हूँ मैं
दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
आदतन मुस्कुरा रहा हूँ मैं
ना-तवाँ हो के अद्ल चाहता हूँ
वाक़ई क़ाबिल-ए-सज़ा हूँ मैं
देख कर रंग बज़्म-ए-आलम का
नक़्श-ए-दीवार बन गया हूँ मैं
सुबह के इंतिज़ार में 'रिफ़अत'
रात भर सोचता रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं
रिफ़अत सुलतान