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इबरत-ए-दहर हो गया जब से छुपा मज़ार में | शाही शायरी
ibrat-e-dahr ho gaya jab se chhupa mazar mein

ग़ज़ल

इबरत-ए-दहर हो गया जब से छुपा मज़ार में

साक़िब लखनवी

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इबरत-ए-दहर हो गया जब से छुपा मज़ार में
ख़ैर जगह तो मिल गई दीदा-ए-ए'तिबार में

तोड़ रहा है बाग़बाँ पंखुड़ियाँ बहार में
कोई तो हो फ़िदा-ए-गुल एक नहीं मज़ार में

महव हूँ याद-ए-चेहरा-ए-शाहिद-ए-गुल-अज़ार में
अब ये ख़िज़ाँ-नसीब दिल जा के मिला बहार में

औज-ए-निहाद-ए-तबा की मिट के भी शान रह गई
मर के मैं सू-ए-आसमाँ मिल के उड़ा ग़ुबार में

मेरे लिबास-ए-कोहना से हटती नहीं है उन की आँख
शायद उलझ गई नज़र जामा-ए-तार-तार में

तुम ने शब-ए-फ़िराक़ में देखीं नहीं जो हालतें
आज वो आ के देख लो आलम-ए-एहतिज़ार में

जज़्ब-ए-शमीम-ए-ज़ुल्फ़ है दाना-ए-दाम से सिवा
सैकड़ों दिल खिंच आए हैं गेसू-ए-मुश्क-बार में

फ़ैसला हो ही जाएगा छँटने दे भीड़ हश्र की
'साक़िब'-ए-दिल-हज़ीं है आज तू भी किसी शुमार में