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हूर-ओ-क़ुसूर से न बहिश्त-ए-बरीँ से है | शाही शायरी
hur-o-qusur se na bahisht-e-barin se hai

ग़ज़ल

हूर-ओ-क़ुसूर से न बहिश्त-ए-बरीँ से है

ख़ावर रिज़वी

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हूर-ओ-क़ुसूर से न बहिश्त-ए-बरीँ से है
नाज़ाँ हूँ मैं कि मेरा तअ'ल्लुक़ ज़मीं से है

वक़्फ़-ए-फ़रोग़-ए-रंग-नज़र और दिल ब-ज़िद
पैराहन-ए-हयात दरीदा कहीं से है

सज्दों की ज़ौ नहीं है तो ज़ख़्मों के फूल हैं
बाक़ी कोई तो संग का रिश्ता जबीं से है

क्या ज़िक्र-ए-बे-रुख़ी कि ये शेवा है हुस्न का
शिकवा मुझे तिरी निगह-ए-अव्वलीं से है

मैं तेरा बाँकपन हूँ मुझे हाथ से न खो
अंगुश्तरी की ज़ीनत-ओ-क़ीमत नगीं से है

धूल उड़ रही है दीदा-ए-खूँ-नाबा-बार में
क़ाएम अब अश्क-ए-ग़म का भरम आस्तीं से है

हम भागते फिरें ये मुरव्वत से है बईद
जब गर्दिश जहाँ को अक़ीदत हमीं से है

आशोब-ए-रोज़गार ने ये हाल कर दया
बातें कहीं की हैं तो हवाला कहीं से है

'ख़ावर' किसी भी रिश्ते को हासिल नहीं सबात
जुज़ रिश्ता-ए-वफ़ा जो दम-ए-वापसीं से है