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हुसूल-ए-फ़क़्र गर चाहे तो छोड़ असबाब-ए-दुनिया को | शाही शायरी
husul-e-faqr gar chahe to chhoD asbab-e-duniya ko

ग़ज़ल

हुसूल-ए-फ़क़्र गर चाहे तो छोड़ असबाब-ए-दुनिया को

मीर मोहम्मदी बेदार

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हुसूल-ए-फ़क़्र गर चाहे तो छोड़ असबाब-ए-दुनिया को
लगा दे आग यकसर बिस्तर-ए-संजाब-ओ-दीबा को

रखे हैं हक़-परस्ताँ तर्क-ए-जमइय्यत में जमइय्यत
मयस्सर होवे ये दौलत कहाँ अर्बाब-ए-दुनिया को

फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू-ए-दहर मत खा मर्द-ए-आक़िल हो
समझ आतिश-कदा इस गुलशन-ए-शादाब-ए-दुनिया को

सियह-मस्त-ए-मय-ए-तहक़ीक़ हो गर पाक-तीनत है
नजिस मत जाम कर तू भर के बस ख़ूनाब-ए-दुनिया को

ये है 'बेदार' ज़हर-आलूदा मार इस से हज़र करना
न लेना हाथ में तू गेसू-ए-पुर-ताब-ए-दुनिया को