हुस्न से हट के मोहब्बत की नज़र जाए कहाँ
कोई मंज़िल न मिले राहगुज़र जाए कहाँ
तुम बहुत दूर हो हम भी कोई नज़दीक नहीं
दिल का क्या ठीक है कम-बख़्त ठहर जाए कहाँ
देखिए ख़्वाब-ए-सहर चाटिए दीवार-ए-अज़ल
रात जाती नज़र आती है मगर जाए कहाँ
रुख़-ए-सहरा है 'ख़िज़ाँ' घर की तरफ़ मुद्दत से
हम जो सहरा की तरफ़ जाएँ तो घर जाए कहाँ
ग़ज़ल
हुस्न से हट के मोहब्बत की नज़र जाए कहाँ
महबूब ख़िज़ां