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हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला | शाही शायरी
husn jab maqtal ki jaanib tegh-e-burran le chala

ग़ज़ल

हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला

हसन बरेलवी

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हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला
इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलाँ ले चला

आरज़ू-ए-दीद-ए-जानाँ बज़्म में लाई मुझे
बज़्म से मैं आरज़ू-ए-दीद-ए-जानाँ ले चला

बिस्मिलों को ज़ख़्म ज़ख़्मों को मुबारक लज़्ज़तें
सू-ए-मक़्तल फिर कोई तेग़-ओ-नमक-दाँ ले चला

ख़ून-ए-नाहक़ की हया बोली ज़रा मुँह ढाँक लो
नाज़ जब उन को सर-ए-ख़ाक-ए-शहीदाँ ले चला

कट गया आशिक़ सर-ए-बाज़ार सौदा बिक गया
जान-ए-लैला इश्क़ ने दिल हुस्न-ए-ख़ूबाँ ले चला

ख़ाक-ए-आशिक़ रोकने को दूर तक लिपटी गई
जब समंद-ए-नाज़ को वो गर्म-जौलाँ ले चला

मेरे घर तक पाँव पड़ कर उन को लाया था नियाज़
नाज़ दामन खींचता सू-ए-रक़ीबाँ ले चला

दिल को जानाँ से 'हसन' समझा-बुझा के लाए थे
दिल हमें समझा-बुझा कर सू-ए-जानाँ ले चला