हुस्न हर नौनिहाल रखता है
कोई तुझ सा जमाल रखता है
मुझ से हो तेरे जौर का शिकवा
ये भला एहतिमाल रखता है
तुझ से कुछ अपना अर्ज़-ए-हाल करे
दिल कब इतनी मजाल रखता है
माह क्या है कि जिस से दूँ तश्बीह
हुस्न तू बे-ज़वाल रखता है
जीते-जी उस से आशिक़-ए-महजूर
कब उमीद-ए-विसाल रखता है
तू कहाँ और उस का वस्ल कहाँ
ये ख़याल-ए-मुहाल रखता है
जी में 'बेदार' तेरे मिलने का
आह क्या क्या ख़याल रखता है
ग़ज़ल
हुस्न हर नौनिहाल रखता है
मीर मोहम्मदी बेदार