हुस्न-ए-सूरत में गरचे बूद नहीं
पर कहाँ इश्क़ की नुमूद नहीं
नीस्ती जल्वा-गर है हस्ती में
कुछ अदम का मिरे वजूद नहीं
हम ने अव्वल से देखा आख़िर तक
ज़ात हक़ की नबूद-ओ-बूद नहीं
तेरे हुस्न-ए-मलीह के क़ुर्बान
किस के विर्द-ए-ज़बाँ दुरूद नहीं
मेरे साक़ी के पेश साग़र-ए-चश्म
शीशे को कब सर-ए-सुजूद नहीं
दाग़-ए-सोजाँ है जिस्म में वो उज़्व
संग-ए-आफ़त से जो कबूद नहीं
बाग़ है दाग़ गर न हो लाला
बज़्म वो क्या है जिस में ऊद नहीं
बस-कि है कुंद नाख़ुन-ए-मिज़्गाँ
उक़्दा-ए-अश्क की कुशूद नहीं
हम जो कहते थे तुम से रोज़ 'वक़ार'
जुज़ ज़रर आशिक़ी में सूद नहीं

ग़ज़ल
हुस्न-ए-सूरत में गरचे बूद नहीं
किशन कुमार वक़ार