हुस्न-ए-सरशार तिरा दारू-ए-बे-होशी है
होश में कौन है किस को सर-ए-मय-नोशी है
कुछ अगर बे-अदबी होवे तो मा'ज़ूर रखो
सोहबत-ए-मयकशी-ओ-आलम-ए-बे-होशी है
जों हिलाल आप से यकसर मैं हुआ हूँ ख़ाली
तुझ से ऐ मेहर-लक़ा शौक़-ए-हम-आग़ोशी है
बाँग-ए-गुल बाइ'स-ए-गर्दन-शिकनी है गुल की
ग़ुंचा सालिम है कि जब तक उसे ख़ामोशी है
सर चढ़ा जाए है ऐ ज़ुल्फ़ कसू की तो मगर
उस परी-रू से तुझे आज जो सरगोशी है
आप हो जाए है उस तेग़ निगह के आगे
गरचे आईने के जौहर से ज़रा पोशी है
उम्र ग़फ़लत ही में 'बेदार' चली जानी है
याद है जिस की ग़रज़ उस से फ़रामोशी है
ग़ज़ल
हुस्न-ए-सरशार तिरा दारू-ए-बे-होशी है
मीर मोहम्मदी बेदार