EN اردو
हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं | शाही शायरी
husn-e-muKHtar sahi ishq bhi majbur nahin

ग़ज़ल

हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं

हसन आबिद

;

हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं
ये जफ़ाओं पे जफ़ा अब मुझे मंज़ूर नहीं

ज़ुल्फ़-ए-ज़ंजीर सही दिल भी गिरफ़्तार मगर
मैं तिरे हल्क़ा-ए-आदाब का महसूर नहीं

दिल का सौदा है जो पट जाए तो बेहतर वर्ना
मैं भी मजबूर नहीं आप भी मजबूर नहीं

दामन-ए-दिल से ये बेगाना-रवी इतना गुरेज़
तुम तो इक फूल हो काँटों का भी दस्तूर नहीं

चंद जाम और कि मैख़ाना-ए-जाँ तक पहुँचें
ढूँडने वाले मुझे मुझ से बहुत दूर नहीं

सब लिबासों में हैं पोशीदा गुनाहों की तरह
दिल-ए-बेबाक भी महफ़िल के तईं और नहीं

हर सुख़न होश का है मुफ़्ती-ए-हैरान के साथ
सब पिए बैठे हैं और कोई भी मख़मूर नहीं

सब रसन-बस्ता-ए-आज़ादी-ए-ईमान हुए
अब कोई मेरे सिवा बंदा-ए-मजबूर नहीं

उस से मिल कर भी उदास उस की जुदाई भी गराँ
दिल ब-हर-हाल किसी तौर भी मसरूर नहीं