हुजूम-ए-ग़म से मसर्रत कशीद करते हैं
कि हम तो ज़हर से अमृत कशीद करते हैं
उन्हों ने पाल रखे हैं ज़माने-भर के ग़म
मिरे लहू से जो इशरत कशीद करते हैं
हमारी फ़िक्र अभी क़ैद है ज़वाहिर में
हम अपने काम से शोहरत कशीद करते हैं
सदाएँ हम ने सुनी हैं जो शहर में उन से
इक एक लफ़्ज़ बग़ावत कशीद करते हैं
मैं उन को देख के हैरत में ग़र्क़ हूँ 'आसी'
वो मेरे हाल से इबरत कशीद करते हैं

ग़ज़ल
हुजूम-ए-ग़म से मसर्रत कशीद करते हैं
मोहम्मद याक़ूब आसी