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हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से | शाही शायरी
hujum-e-gham mein kis zinda-dili se

ग़ज़ल

हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से

मुज़फ़्फ़र रज़्मी

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हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से
मुसलसल खेलता हूँ ज़िंदगी से

क़रीब आते हैं लेकिन बे-रुख़ी से
पुराने दोस्त भी हैं अजनबी से

फ़रिश्ते दम-ब-ख़ुद इबलीस हैराँ
तवक़्क़ो ये कहाँ थी आदमी से

निज़ाम-ए-अस्र-ए-नौ ये कह रहा है
अंधेरे फैलते हैं रौशनी से

चले आए हरम से मय-कदे में
परेशाँ हो गए जब ज़िंदगी से

लगी है आग जब से गुलिस्ताँ में
बहुत डरने लगा हूँ रौशनी से

न हो जो तरजुमान-ए-वक़्त 'रज़्मी'
भला क्या फ़ाएदा उस शाइरी से